वैष्णव सम्प्रदाय


 

वैष्णव धर्म / वैष्णव सम्प्रदाय / भागवत धर्म

वैष्णव धर्म या 'वैष्णव सम्प्रदाय' का प्राचीन नाम 'भागवत धर्म' या 'पांचरात्र मत' है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या 'भगवत' कहा गया है और भगवत के उपासक 'भागवत' कहलाते हैं। इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं। 'महाभारत' के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है। 'नारद पांचरात्र' के अनुसार इसमें ब्रह्म, मुक्ति, भोग, योग और संसार–पाँच विषयों का 'रात्र' अर्थात ज्ञान होने के कारण यह पांचरात्र है। 'ईश्वरसंहिता', 'पाद्मतन्त', 'विष्णुसंहिता' और 'परमसंहिता' ने भी इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की है। 'शतपथ ब्राह्मण' के अनुसार सूत्र की पाँच रातों में इस धर्म की व्याख्या की गयी थी, इस कारण इसका नाम पांचरात्र पड़ा। इस धर्म के 'नारायणीय', ऐकान्तिक' और 'सात्वत' नाम भी प्रचलित रहे हैं।
 
विवरण 'वैष्णव सम्प्रदाय' हिन्दू धर्म में मान्य मुख्य सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के लोग भगवान विष्णु को अपना आराध्य देव मानते और पूजते हैं। 
 
प्रारम्भ अनुमान है कि लगभग 600 ई.पू. जब ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे, उससे भी पहले उपासना प्रधान वैष्णव धर्म विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से वृष्णि वंशीय क्षत्रियों की सात्वत नामक जाति में सीमित था। 
वैदिक परम्परा का इसने सीधा विरोध नहीं किया, प्रत्युत अपने अहिंसाप्रधान धर्म को वेद-विहित ही बताया। इस कारण कि उसकी प्रवृत्ति बौद्ध और जैन सुधार-आन्दोलनों की भाँति खण्डनात्मक और प्रबल उपचारात्मक नहीं थी, इस सम्प्रदाय की वैसी धूम नहीं मची। ई.पू. चौथी शती में पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्र से वासुदेव के उपासक का प्रमाण मिलता है। ई.पू. तीसरी-चौथी शती से पहली शती तक वासुदेवोपासना के अनेक प्रमाण प्राचीन साहित्य और पुरातत्त्व में मिले हैं।  

प्रचलन

जैनों के सलाक पुरुषों में वासुदेव और बलदेव भी हैं तथा अरिष्टनेमि और वासुदेव के सम्बन्ध का भी उल्लेख प्राचीन जैन साहित्य में मिलता है। बौद्धजातकों (घत और महा उमग्ग) में वासुदेव की कथा कही गयी है। बौद्ध साहित्य के 'चुल्लनिद्देस' मे आजीवक, निगंठ, जटिल बलदेव आदि श्रावकों के साथ वासुदेव को पूजने वाले वासुदेवकों का भी उल्लेख हुआ है, जिससे सूचित होता है कि यह सम्प्रदाय तीसरी-चौथी शती ई.पू. में विद्यमान था। इसी काल में चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा के यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने 'सौरसेनाई' (शौरसेनी) जाति में जो 'जोबेरीज' (यमुना) नदी के किनारे बसती थी और 'मेथोरा' (मथुरा) और क्लीसोबोरा (कृष्णपुर) जिसके प्रधान नगर थे, हेराक्लीज (कृष्ण) के विशेष रूप से पूजे जाने का उल्लेख किया है। 200 ई. पू. के वेसनगर (भिलसा) के एक स्तम्भ लेख के अनुसार बैक्ट्रिया के राजदूत हेलियाडोरस ने देवाधिदेव वासुदेव की प्रतिष्ठा में गरूड़स्तम्भ का निर्माण कराया था। वह अपने को भागवत कहता था। ई.पू. पहली शती के नाणेघाट के गुहाभिलेख में अन्य देवताओं के साथ संकर्षण और वासुदेव का भी नामोल्लेख है। इसी समय का एक और शिलालेख चित्तौड़गढ़ के समीप घोसुण्डी में मिला है, जिसमें कण्ववंशी राजा सर्वतात द्वारा अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर भगवान संकर्षण और वासुदेव के मन्दिर के लिए 'पूजाशिला-प्राकार' बनवाये जाने का उल्लेख है। मथुरा के एक महाक्षत्रप शोडास (ई.पू. 80-57) के समय के एक शिलालेख के अनुसार वसु नामक एक व्यक्ति ने महास्थान (जन्मस्थान मथुरा) में भगवान वासुदेव का मन्दिर बनवाया था। इन प्रमाणों से सूचित होता है कि भागवत धर्म का सबसे पहला नाम वासुदेव धर्म या वासुदेवोपासना है। भागवत नाम भी ई.पू. दूसरी-तीसरी शती में प्रचलित हो गया था। प्रारम्भ में यह उपासना-मार्ग शूरसेन (आधुनिक ब्रजप्रदेश) में बसने वाली सात्वत जाति में सीमित था, परन्तु इसका प्रचार कदाचित सात्वतों के स्थानान्तरण के फलस्वरूप ई.पू. दूसरी-तीसरी शताब्दियों में ही पश्चिम की ओर भी हो गया था तथा कुछ विदेशी (यूनानी) लोग भी इसे मानने लगे थे।

दक्षिण के प्राचीन तमिल साहित्य में वासुदेव, संकर्षण तथा कृष्ण के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। इन सन्दर्भों के आधार पर अनुमान किया गया है कि उपर्युक्त सात्वत लोग, जो वैदिक पुरूवंशक एक जाति विशेष के थे, मगध के राजा जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्त प्रदेश की ओर चले गये। मार्ग में इनमें से कुछ लोग पालव और उसके दक्षिण की ओर बस गये और वहीं से दक्षिण देश के सम्पूर्ण उत्तरी क्षेत्र तथा कोंकण में फैल गये। इन्हीं में से कुछ और दक्षिण की ओर चले गये। दक्षिण के अद्विया, अण्डार और इडैयर जातियों के लोग पशुपालक अहीर या आभीरों के समकक्ष हैं। सात्वत जाति भी पशुपालक क्षत्रियों की जाति थी। 'ऐतरेय ब्राह्मण' में दक्षिण के सात्वतों द्वारा इन्द्र के अभिषेक का उल्लेख मिलता है। यह मालूम होता है कि सात्वतों का दक्षिणगमन उससे पहले हो चुका था। वे अपने साथ अपनी धार्मिक परम्पराएँ भी अवश्य लेते गये होंगे। 

साहित्यिक उल्लेख 


 

भागवत धर्म भी प्रारम्भ में क्षत्रियों द्वारा चलाया हुआ एक अब्राह्मण उपासना-मार्ग था परन्तु कालान्तर में सम्भवत: अवैदिक और नास्तिक जैन-बौद्ध मतों का प्राबल्य देखकर ब्राह्मणों ने उसे अपना लिया और वैष्णव या नारायणीय धर्म के रूप में उसका विधिवत संघटन किया। 'महाभारत' शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में इस नवीन धर्म को वैष्णव यज्ञ कहा गया है यज्ञ प्रधान वैदिक कर्मकाण्ड के प्रवृत्ति-मार्ग के विपरीत इसे निवृत्ति-मार्ग बताया गया है। इस वैष्णव यज्ञ में पशुवध का स्पष्ट रूप में निषेध तथा तप, सत्य, अहिंसा और इन्द्रियनिग्रह का विधान किया गया था। 'महाभारत' में ही वासुदेव को वैदिक देवता विष्णु से अभिन्न बताया गया तथा साथ ही कृष्ण को भी द्वितीय वासुदेव के रूप में उन्हीं का अवतार प्रसिद्ध किया गया। ऋग्वेद में विष्णु-सम्बन्धी जो थोड़ी-सी ऋचाएँ मिलती हैं, उनमें उनका अत्यन्त भव्य वर्णन हुआ है।

 वैष्णव सम्प्रदाय, भगवान विष्णु और उनके स्वरूपों को आराध्य मानने वाला सम्प्रदाय है। इसके अन्तर्गत मूल रूप से चार संप्रदाय आते हैं। मान्यता अनुसार पौराणिक काल में विभिन्न देवी-देवताओं द्वारा वैष्णव महामंत्र दीक्षा परंपरा से इन संप्रदायों का प्रवर्तन हुआ है। वर्तमान में ये सभी संप्रदाय अपने प्रमुख आचार्यो के नाम से जाने जाते हैं। यह सभी प्रमुख आचार्य दक्षिण भारत में जन्म ग्रहण किए थे। जैसे:- (१) श्री सम्प्रदाय जिसकी आद्य प्रवरर्तिका विष्णुपत्नी महालक्ष्मीदेवी और प्रमुख आचार्य रामानुजाचार्य हुए। जो वर्तमान में रामानुजसम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।

(२) ब्रह्म सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक चतुरानन ब्रह्मादेव और प्रमुख आचार्य माधवाचार्य हुए। जो वर्तमान में माध्वसम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।

(३) रुद्र सम्प्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक देवादिदेव महादेव और प्रमुख आचार्य वल्लभाचार्य हुए जो वर्तमान में वल्लभसम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।

(४) कुमार संप्रदाय जिसके आद्य प्रवर्तक सनतकुमार गण और प्रमुख आचार्य निम्बार्काचार्य हुए जो वर्तमान में निम्बार्कसम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है।

इसके अलावा मध्यकालीन उत्तरभारत में ब्रह्म(माध्व) संप्रदाय के अंतर्गत ब्रह्ममाध्वगौड़ेश्वर(गौड़ीय) संप्रदाय जिसके प्रवर्तक आचार्य श्रीमन्महाप्रभु चैतन्यदेव हुए और श्री(रामानुज) संप्रदाय के अंतर्गत रामानंदी संप्रदाय जिसके प्रवर्तक आचार्य श्रीरामानंदाचार्य हुए । रामान्दाचार्य जी ने सर्व धर्म समभाव की भावना को बल देते हुए कबीर, रहीम सभी वर्णों (जाति) के व्यक्तियों को भक्ति का उपदेश किया। 

वैष्‍णव धर्म या सम्‍प्रदाय से जुड़े महत्‍वपूर्ण तथ्‍य:



(1) वैष्णव धर्म के बारे में सामान्य जानकारी उपनिषदों से मिलती है. इसका विकास भगवत धर्म से हुआ है.

(2) वैष्णव धर्म के प्रवर्तक कृष्ण थे, जो वृषण कबीले के थे और जिनका निवास स्थान मथुरा था.

(3) कृष्ण का सबसे पहले उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में देवकी के बेटे और अंगिरस के शिष्य के रूप में हुआ.

(3) कृष्ण का सबसे पहले उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में देवकी के बेटे और अंगिरस के शिष्य के रूप में हुआ.

सम्‍प्रदाय

   संस्‍थापक

आजीवक

मक्‍खलिपुत्र

घोर अक्रियवादी

पूरण कश्‍यप

यदृच्‍छावाद

आचार्य अजित

भौतिकवादी

पकुध कच्‍चायन (भौतिक दर्शन)

(4) विष्णु के अवतारों का उल्लेख मत्स्यपुराण में मिलता है.
(5) शास्‍त्रों में विष्‍णु के 24 अवतार माने गए हैं, ले‍कि‍न मत्‍स्‍य पुराण में प्रमुख 10 अवतार माने जाते हैं:
(i) मत्स्य
(ii) कच्‍छप
(iii) वराह
(iv) नृसिंह
(v) वामन
(vi) परशुराम
(vii) राम
(viii) कृष्‍ण
(ix) बुद्ध
(x) कल्कि


(6) 24 अवतारों का क्रम इस तरह है:
(i) आदि परषु
(ii) चार सनतकुमार
(iii) वराह
(iv) नारद
(v) नर-नारायण
(vi) कपिल
(vii) दत्तात्रेय
(viii) याज्ञ
(ix) ऋषभ
(x) पृथु
(xi) मतस्य
(xii) कच्छप
(xiii) धनवंतरी
(xiv) मोहिनी
(xv) नृसिंह
(xvi) हयग्रीव
(xvii) वामन
(xviii) परशुराम
(xix) व्यास
(xx) राम
(xxi) बलराम
(xxii) कृष्ण
(xxiii) बुद्ध
(xxiv) कल्कि

प्रमुख सम्‍प्रदाय, मत एवं आचार्य

प्रमुख सम्‍पदाय

मत

आचार्य

वैष्‍णव सम्‍प्रदाय

विशिष्‍टाद्वैत

रामानुज

ब्रह्मा सम्‍प्रदाय

द्वैत

आनंदतीर्थ

रुद्र सम्‍प्रदाय

शुद्धद्वैत

वल्‍लभाचार्य

सनक सम्‍प्रदाय

द्वैताद्वैत

निम्‍बार्क


(7) वैष्णव धर्म में ईश्वर प्राप्ति के लिए सर्वाधिक महत्व भक्ति को दिया है.

(8) ऋग्वेद में वैष्णव विचारधारा का उल्लेख मिलता है. वैष्‍ण ग्रंथ इस प्रकार हैं:
(i) ईश्वर संहिता
(ii) पाद्मतन्त
(iii) विष्णुसंहिता
(iv) शतपथ ब्राह्मण
(v) ऐतरेय ब्राह्मण
(vi) महाभारत
(vii) रामायण
( viii) विष्णु पुराण

(8) वैष्‍ण तीर्थ इस प्रकार हैं:
(i) बद्रीधाम
(ii) मथुरा
(iii) अयोध्या
(iv) तिरुपति बालाजी
(v) श्रीनाथ
(vi) द्वारकाधीश

(9) वैष्‍णव संस्‍कार इस प्रकार हैं:
(i) वैष्णव मंदिर में विष्णु राम और कृष्ण की मूर्तियां होती हैं. एकेश्‍वरवाद के प्रति कट्टर नहीं हैं.
(ii) इसके संन्यासी सिर मुंडाकर चोटी रखते हैं.
(iii) इसके अनुयायी दशाकर्म के दौरान सिर मुंडाते वक्त चोटी रखते हैं.
(iv) ये सभी अनुष्ठान दिन में करते हैं.
(v) यह सात्विक मंत्रों को महत्व देते हैं.
(vi) जनेऊ धारण कर पितांबरी वस्त्र पहनते हैं और हाथ में कमंडल तथा दंडी रखते हैं.
(vii) वैष्णव सूर्य पर आधारित व्रत उपवास करते हैं.
(viii) वैष्णव दाह संस्कार की रीति हैं.
(ix) यह चंदन का तीलक खड़ा लगाते हैं.

(10) वैष्‍णव साधुओं को आचार्य, संत, स्‍वामी कहा जाता है.