पुष्यभूति वंश को वर्धन वंश भी कहा जाता है। इनकी राजधानी थानेश्वर थी। वर्धन वंश का संस्थापक पुष्यभूति था। इस वंश को वैश्य जाति से सम्बंधित बताया गया है। प्रारंभ में पुष्यभूति गुप्तों के सामंत थे, हूणों पर आक्रमण के बाद उन्होंने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी।
प्रभाकर वर्धन इस वंश का प्रथम प्रभावशाली शासक था। इसने परम भट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। प्रभाकर वर्धन के दो पुत्र थे – राज्यवर्धन और हर्षवर्धन। गौड़ शासक शशांक द्वारा राज्यवर्धन को मर दिए जाने के बाद हर्षवर्धन शासक बना।
प्रभाकरवर्धन, पुष्यभूति का शक्तिशाली राजा था। इसका शासनकाल छठवीं शताब्दी के अन्तिम वर्ष थे। प्रभाकरवर्धन की माता गुप्त वंश की राजकुमारी महासेनगुप्त नामक स्त्री थी। अपने पड़ोसी राज्यों, मालव, उत्तर-पश्चिमी पंजाब के हूणों तथा गुर्जरों के साथ युद्ध करके प्रभाकरवर्धन ने काफ़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी।
अपनी पुत्री राज्यश्री का विवाह प्रभाकरवर्धन ने कन्नौज के मौखरि राजा गृहवर्मन से किया था।
प्रभाकरवर्धन की मृत्यु 604 ई. में हुई थी। उसके बाद उसका सबसे बड़ा पुत्र राज्यवर्धन उत्तराधिकारी बना।
राज्यवर्धन थानेश्वर के शासक प्रभाकरवर्धन का ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपने भाई हर्षवर्धन और बहन राज्यश्री से बड़ा था। तीनों बहन-भाइयों में अगाध प्रेम था। एक भीषण युद्ध के फलस्वरूप बंगाल के राजा शशांक द्वारा राज्यवर्धन का वध हुआ।
राज्यवर्धन की बहन राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि वंश के शासक गृहवर्मन से हुआ था। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के उपरान्त ही देवगुप्त का आक्रमण कन्नौज पर हुआ और एक भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया। युद्ध में गृहवर्मन मालवा के राजा देवगुप्त के हाथों मारा गया और उसकी पत्नी राज्यश्री को बन्दी बनाकर कन्नौज के काराग़ार में डाल दिया गया।
सूचना मिलते ही राज्यश्री के ज्येष्ठ अग्रज राज्यवर्धन ने अपनी बहन को काराग़ार से मुक्त कराने के लिए कन्नौज की ओर प्रस्थान किया राज्यवर्धन ने मालवा के शासक देवगुप्त को पराजित करके मार डाला, किंतु वह स्वयं देवगुप्त के सहायक और बंगाल के शासक शशांक द्वारा मारा गया।
इस समय राज्य में व्याप्त भारी उथल-पुथल से राज्यश्री काराग़ार से भाग निकली और उसने विन्ध्यांचल के जंगलों में शरण ली। बाद में राज्यवर्धन के उत्तराधिकारी सम्राट हर्षवर्धन ने राज्यश्री को विन्ध्यांचल के जंगलों में उस समय ढूँढ निकाला, जब वह निराश होकर चिता में प्रवेश करने ही वाली थी। हर्षवर्धन उसे कन्नौज वापस लौटा लाया और आजीवन उसको सम्मान दिया।
606 ई. में हर्षवर्धन थानेश्वर के सिंहासन पर बैठा। हर्षवर्धन के बारे में जानकारी के स्रोत है- बाणभट्ट का हर्षचरित, ह्वेनसांग का यात्रा विवरण और स्वयं हर्ष की रचनाएं।
हर्षवर्धन का दूसरा नाम शिलादित्य था। हर्ष ने महायान बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान किया। हर्ष ने 641 ई. में अपने दूत चीन भेजे तथा 643 ई. और 646 ई. में दो चीनी दूत उसके दरबार में आये। हर्ष ने 646 ई. में कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन किया।
हर्ष ने कश्मीर के शासक से बुद्ध के दंत अवशेष बलपूर्वक प्राप्त किये। हर्षवर्धन शिव का भी उपासक था। वह सैनिक अभियान पर निकलने से पूर्व रूद्र शिव की आराधना किया करता था।
हर्षवर्धन साहित्यकार भी था। उसने प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद तीन ग्रंथों (नाटक) की रचना की। बाणभट्ट हर्ष का दरबारी कवि था। उसने हर्षचरित, कादम्बरी तथा शुकनासोपदेश आदि कृतियों की रचना की।
मालवा के शासक देवगुप्त तथा गौड़ शासक शशांक ने, ग्रहवर्मन की हत्या करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया। हर्षवर्धन ने शशांक को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार करके उसे अपनी राजधानी बना लिया था।
हर्षवर्धन को बांसखेड़ा तथा मधुबन अभिलेखों में परम महेश्वर कहा गया है। ह्वेनसांग के अनुसार, हर्ष ने पड़ोसी राज्यों पर अपना अधिकार करके अपने अधीन कर लिया था।
दक्षिण भारत के अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है की हर्ष सम्पूर्ण उत्तरी भारत का स्वामी था। हर्ष के साम्राज्य का विस्तार उत्तर में थानेश्वर (पूर्वी पंजाब) से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के तट तथा पूर्व में गंजाम से लेकर पश्चिम में वल्लभी तक फैला हुआ था।
भारतीय इतिहास में हर्ष का सर्वाधिक महत्त्व इसलिए भी है की वह उत्तरी भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट था, जिसने आर्यावर्त पर शासन किया।
राजा के दैवीय सिद्धांत का प्रचलन था, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि राजा निरंकुश होता था। वस्तुतः राजा के अनेक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व होते थे, जिन्हें पूरा करना पड़ता था। हर्ष को एक प्रशासक एवं प्रजापालक राज्य के रूप में स्मरण किया जाता है।
नागानंद में उल्लेख आया है की हर्ष का आदर्श प्रजा को सुखी एवं प्रसन्न देखना था। केन्द्रीय शासन का जो नियंत्रण मौर्य युग में दिखाई देता है वह हर्ष युगवहीँ राजहित कादम्बरी और हर्षचरित में उसे प्रजा का रक्षक कहा गया है। राजा को राजकीय कार्यों में सहायता देने के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गयी थी। मंत्रियों की सलाह काफी महत्व रखती थी।
राजा प्रशासनिक व्यवस्था की धुरी होता था। वह अंतिम न्यायाधीश और मुख्य सेनापति था। हर्ष के प्रशासन में अवंति, युद्ध और शांति का अधिकारी था। हर्ष की प्रशासनिक व्यवस्था गुप्तकालीन व्यवस्था पर आधारित थी।
बहुत से प्रशासनिक पद गुप्तकालीन थे, जैसे ‘संधिविग्रहिक‘ अपटलाधिकृत ‘सेनापति’ आदि। राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए ग्राम, विषय, भुक्ति, राष्ट्र में विभाजित था। भुक्ति का तात्पर्य प्रांत से था, विषय जिले के समान था। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।
महासामंत, महाराज, दौस्साधनिक, प्रभावर, कुमारामात्य, उपरिक आदि प्रांतीय अधिकारी थे। पुलिस विभाग का भी गठन किया गया था। चौरोद्धरजिक, दण्डपाशिक आदि पुलिस विभाग के कर्मचारी थे। हर्ष काल के अधिकारीयों को वेतन के रूप में जागीरें (भूमि) दी जाती थीं।
राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र करने पर आजीवन कैद की सजा दी जाती थी। इसके आलावा अंग-भंग, देश निकाला, आर्थिक दण्ड भी लगाया जाता था। हर्ष ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक संगठित सेना का गठन किया था। सेना में पैदल, अश्वारोही, रक्षारोही और हरिन्तआरोही होते थे।
हर्षवर्धन की जानकारी के स्रोत
हर्ष चरित्र– लेखक बाणभट्ट ( 8 अध्याय )- इसे ऐतिहासिक विषय पर गद्यकाव्य लिखने का प्रथम प्रयास कहा जा सकता हैं|
कादम्बरी–लेखक बाणभट्ट- हर्षकालीन सामाजिक धार्मिक जीवन का वर्णन मिलता है|
हर्ष के ग्रन्थ (नाटक)– नागानंद, रत्नावली, प्रियदर्शिका
ह्वेनसांग पुस्तक– ‘सी-यू-की’
काओसेंग चुवान– चीनी यात्री इत्सिंग की भारत यात्रा का विवरण। इसने बौद्ध धर्म के गहन अध्ययन के लिए 672-688 ई. तक भर्मण किया था| उसने बताया कि भारत को आर्यदेश कहा जाता है|
बाँसखेड़ा ताम्रलेख (628 ई.), मधुबन ताम्रपत्र लेख (631 ई.) व पुलकेशिन-द्वितीय का ऐहोल का अभिलेख (634 ई.)|
मुहरें- नालन्दा से मिट्टी की व सोनीपत से तांबे की मुहरें मिली जिसमे हर्ष का पूरा नाम मिलता हैं |
ह्वेनसांग ने तत्कालीन समाज को चार वर्णों में बांटा है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वश्रेष्ठ था। उन्हें क्षत्रिय, आचार्य तथा उपाध्याय कहा गया था।
इस काल में वैश्यों की स्थिति में गिरावट आयी। मनु और बौद्धायन धर्मसूत्र में वैश्यों को सर्वप्रथम शूद्रों के समकक्ष माना गया। समाज में शूद्रों की संख्या सर्वाधिक थी। उनकी आर्थिक स्थिति में उन्नति हुई थी, परन्तु सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता।
इस युग का सर्वाधिक विस्मयकारी परिवर्तन जातियों में वर्णसंकर था। वर्णसंकर जातियों की सबसे लम्बी सूची वैजयंती ने दी है, जिसमे चौसंठ वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है।शूद्रों में भी कुछ वर्ण संकर जातियां थीं।
इन जातियों का जन्म उच्च जाति के पुरुषों का निम्न जाति की स्त्रियों के साथ या प्रतिलोम विवाह से हुआ। इस काल में अस्पृश्य जातियों की संख्या तथा अस्पृश्यता की भावना में वृद्धि हुई।
ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में भारतियों के रहन- सहन, रीति-रिवाज आदि का वर्णन किया है। वह लिखता है, “इस देश का प्राचीन नाम सिन्धु था, परन्तु अब यह इंदु (हिन्द) कहलाता है।
इस देश के लोग जातियों में विभाजित हैं, जिनमे ब्राह्मण अपनी पवित्रता एवं साधुता के लिए विख्यात है “इस काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आयी। बाणभट्ट के अनुसार विरोधी विचारों के होते हुए भी सती प्रथा का प्रचलन बढ़ता चला गया।सती प्रथा का प्रचलन राजपूतों में अधिक था।
दास प्रथा का अस्तित्व था, लेकिन दासों की सामाजिक स्थिति अव्यजों तथा तिरस्कृत जातियों से अच्छी थी। वृहद धर्म पुराण में 36 वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है, इन्हें शूद्र स्तर प्रदान किया गया है।
गुप्तकाल के बाद भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। यह परिवर्तन सामंतवाद का उदय है।सामंत व्यवस्था का उदय अधिकारियों, मंदिरों, ब्राह्मणों आदि को उनकी सेवाओं के बदले भू क्षेत्र प्रदान करने से हुआ।
आरंभ में यह व्यवस्था ब्राह्मणों और मंदिरों तक सीमित थी। इस युग में अर्थव्यवस्था का आधार कृषि थी, किन्तु अधिक उत्पादन के प्रति लोगों में उत्साह नहीं था क्योंकि अतिरिक्त उत्पादन का अधिक भाग जमींदार या सामंत ले लेते थे।
मिताक्षरा के अनुसार भूमिदान का अधिकार सिर्फ राजा को था न कि सेवा के बदले संपत्ति प्राप्त करने वाले को। राजा द्वारा प्रदत्त भूमि अनुदानों को आज्ञापत्र कहा जाता था।
कर व्यवस्था
अग्नि पुराण के अनुसार कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए सिंचाई के साधनों की व्यवस्था का उत्तरदायित्व राजा का था। वह भूमि, जो जोतने वालों के स्वामित्व में रहती थी, कौटुम्ब क्षेत्र कहलाती थी।
व्यक्तिगत स्वामित्व वाली भूमि को सकता एवं दुसरे लोगों द्वारा जुटे क्षेत्र को प्रकृष्ट अथवा कृष्ट कहते थे। हर्ष की आय का प्रधान स्रोत भाग था, जो एक प्रकार का भूमिकर था और कृषि उपज का 1/6 भाग था। इस काल में व्यापार का ह्रास दिखाई देता है, जिसके अनेक कारण थे।
चोर-डाकुओं के कारण असुरक्षित मार्ग, केन्द्रीय संक्रमण का अभाव और चुंगी कर। इस समय व्यापार के प्रमुख केंद्र बंगाल, मालवा, गुजरात और कलिंग थे। बंगाल मलमल के लिए, मगध एवं कलिंग धान के लिए, मालवा गन्ने के लिए और गुजरात सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध था।
ताम्रलिप्त, संप्रग्राम, देपल और भड़ौच इस काल के प्रमुख बंदरगाह थे। इस काल में वस्त्र उद्योग उत्कृष्ट था। पौधों के रेशों से बना कपडा ‘दुकूल’ कहलाता था।
बाणभट्ट ने हर्षचरित में रेशम से बने अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख किया है, जैसे-नाल, तुंज, अंशुक और चीनांशुक। इस काल में सिक्कों का उपयोग कम हो गया था। इसका कारण विदेशी व्यापार का ह्रास होना था।
रोमन साम्राज्य से रेशम का व्यापार बंद हो गया था। साधारण लेन-देन और स्थानीय व्यापार कौड़ियों के माध्यम से होता था।
इस युग का प्रमुख धर्म वैष्णव धर्म था। किन्तु इसका गढ़ दक्षिण भारत में था, जहाँ अलवार संतों का अविर्भाव हुआ था। इस युग में बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाने लगा। अवतारवाद जन-साधारण के पुनरुत्थान की आशा एवं आस्था का प्रतीक था।
अवतारों में वराह, कृष्ण और राम अधिक लोकप्रिय थे। इस युग में पूजा और भक्ति दोनों ही तांत्रिक धर्म के अभिन्न अंग बन गए।इस युग के धार्मिक सम्प्रदायों में शैव साम्प्रदाय अधिक प्रबल था। इस काल में बौद्ध धर्म ने तांत्रिक प्रभाव के कारण, मंत्रयान, वज्रयान आदि रूप धारण कर लिया था। शक्तिपूजा का भी प्रचलन इस काल में बढ़ गया था।
ईश्वरीय सम्प्रदायों में शक्ति मुख्य देवता की अर्धांगिनी के रूप में प्रचलित हो गई। दुर्गा की उपासना प्रचलित करने का श्रेय मार्कण्डेय पुराण को है। इस काल में हिन्दू धर्म में जितने भी साम्प्रदाय थे, उनमे शैव सम्प्रदाय सबसे अधिक प्रबल था। दक्षिण में शैव सम्प्रदाय के संतों को नयनार कहा जाता था।
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