इस वंश के शासकों की सूची इस प्रकार है -
कहा जाता है कि पुष्यमित्र शुंग, जो बृहद्रथ मौर्य की सेना का सेनापति था, ने सेना का निरीक्षण करते वक्त बृहद्रथ मौर्य को मार दिया था और सत्ता पर अधिकार कर बैठा था। पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक शासन किया और उसके बाद उसका पुत्र अग्निमित्र सत्तासीन हुआ। आठ वर्षों तक शासन करने के बाद 140 ईसापूर्व के पास उसका पुत्र जेठमित्र (ज्येष्ठमित्र) शासक बना।
पुष्यमित्र के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना थी, पश्चिम से यवनों (यूनानियों) का आक्रमण। वैयाकरण पतंजलि, जो कि पुष्यमित्र का समकालीन थे, ने इस आक्रमण का उल्लेख किया है। कालिदास ने भी अपने नाटक मालविकाग्निमित्रम में वसुदेव का यवनों के साथ युद्ध का ज़िक्र किया है। भरहुत स्पूत का निर्माण पुष्यमित्र ने करवाया था शुंग शासकों ने अपनी राजधानी विदिशा में स्थापित किया था
पुष्यमित्र की मृत्यु (149इ.पू.) के पश्चात उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ। वह विदिशा का उपराजा था। उसने कुल 8 वर्षों तक शासन किया।
अग्निमित्र के बाद वसुज्येष्ठ राजा हुआ।
शुंग वंश का चौथा राजा वसुमित्र हुआ। उसने यवनों को पराजित किया था। एक दिन नृत्य का आनन्द लेते समय मूजदेव नामक व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी। उसने 7 वर्षों तक शासन किया। वसुमित्र के बाद भद्रक, पुलिंदक, घोष तथा फिर वज्रमित्र क्रमशः राजा हुए। इसके शाशन के 24वें वर्ष में तक्षशिला के यवन नरेश एंटीयालकीड्स का राजदूत हेलियोंडोरस उसके विदिशा स्थित दरबार में उपस्थित हुआ था। वह अत्यन्त विलासी शासक था। उसके अमात्य वसुदेब कण्व ने उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार शुंग वंश का अन्त हो गया।
इस वंश के राजाओं ने मगध साम्रज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यव्स्था की स्थापना कर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को कुछ समय तक रोके रखा। मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने वैदिक संस्कृति के आदर्शों की प्रतिष्ठा की। यही कारण है कि उसका शासनकाल वैदिक पुनर्जागरण का काल माना जाता है।
मालविकाग्निमित्रम के अनुसार पुष्यमित्र के काल में लगभग 184इ.पू.में विदर्भ युद्ध में पुष्यमित्र की विजय हुई और राज्य दो भागों में बांट दिया गया। वर्धा नदी (गोदावरी की सहायक नदी) दोनों राज्यों कीं सीमा मान ली गई। दोनो भागों के नरेश ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया तथा इस राज्य का एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ। पुष्यमित्र का प्रभाव क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया। इस वंश का अन्तिम शासक देवभूति था, जिसकी हत्या उसके मंत्री ने की थी।
पतंजली के महाभाष्य से दो बातों का हमें पता चलता है –
“गार्गी संहिता” के युगपुराण में भी लिखा है कि दुष्य, पराक्रमी यवनों ने साकेत, पंचाल और मथुरा को जीत लिया. संभवतः यह आक्रमण उस समय हुआ जब पुष्यमित्र मौर्य राजा का सेनापति था. संभव है कि इस युद्ध में विजयी होकर ही पुष्यमित्र बृहद्रथ को मारकर राजा बना हो. कालिदास ने यूनानियों के एक दूसरे आक्रमण का वर्णन अपने नाटक “मालविकाग्निमित्र” में किया है. यह युद्ध संभवतः पंजाब में सिंध नदी के तट पर हुआ और पुष्यमित्र के पोते और अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने इस युद्ध में यूनानियों को हराया. शायद यह युद्ध इस कारण हुआ हुआ हो कि यूनानियों ने अश्वमेध के घोड़े को पकड़ लिया हो. सभवतः यह यूनानी आक्रमणकारी, जिसने पुष्यमित्र के समय में आक्रमण किया, डिमेट्रियस था. इस प्रकार हम देखते हैं कि पुष्यमित्र ने यूनानियों से कुछ समय के लिए भारत की रक्षा की. यूनानियों को पराजित करके ही संभवतः पुष्यमित्र ने वे अश्वमेध यज्ञ किये जिनका उल्लेख घनदेव के अयोध्या अभिलेख में है.
2. हर्षचरित:
इसकी रचना महाकवि बाणभट्ट ने की थी । इससे पता चलता है कि पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य नरेश बृहद्रथ की हत्या कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया । हर्षचरित उसे ‘अनार्य’ तथा ‘निम्न उत्पत्ति’ का बताता है ।
3. पतंजलि का महाभाष्य:
पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे । उनके ‘महाभाष्य’ में यवन आक्रमण की चर्चा हुई है जिसमें बताया गया है कि यवनों ने साकेत तथा माध्यमिका को रौंद डाला था ।
4. गार्गी संहिता:
यह एक ज्योतिष ग्रन्थ है । इसके युग-पुराण खण्ड में यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है जहाँ बताया गया है कि यवन आक्रान्ता साकेत, पंचाल, मथुरा को जीतते हुए कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) के निकट तक जा पहुँचे ।
5. मालविकाग्निमित्र:
यह महाकवि कालीदास का नाटक ग्रंथ है । इससे शुंगकालीन राजनैतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है । पता चलता है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल था तथा उसवे विदर्भ को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया था । कालिदास यवन-आक्रमण का भी उल्लेख करते हैं जिसके अनुसार अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने सिंधु सरिता के दाहिने किनारे पर यवनों को पराजित किया था ।
6. थेरावली:
इसकी रचना जैन लेखक मेरुतुंग ने किया था । इस ग्रन्थ में उज्जयिनी के शासकों की वंशावली दी गयी है । यहाँ पुष्यमित्र का भी उल्लेख मिलता है तथा बताया गया है कि उसने 30 वर्षों तक राज्य किया । मेरुतुंग का समय चौदहवीं शती का है । अत: उनका विवरण विश्वसनीय नहीं लगता ।
7. हरिवंश:
इस ग्रन्थ में पुष्यमित्र की ओर परोक्ष रूप से संकेत किया गया है । तदनुसार उसे ‘औद्भिज्ज’ (अचानक उठने वाला) कहा गया है जिससे कलियुग में चिरकाल से परित्यक्त अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था । इसमें इस व्यक्ति को ‘सेनानी’ तथा ‘काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण’ कहा गया है । के. पी. जायसवाल इसकी पहचान पुष्यमित्र से करते हैं ।
8. दिव्यावदान:
यह एक बौद्ध ग्रन्थ है । इसमें पुष्यमित्र को मौर्य वंश का अन्तिम शासक बताया गया है तथा उसका चित्रण बौद्ध धर्म के संहारक के रूप में हुआ है । किन्तु ये विवरण विश्वसनीय नहीं हैं ।
1. अयोध्या का लेख:
यह पुष्यमित्र के अयोध्या के राज्यपाल धनदेव का है । इससे पता चलता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञ किये ।
2. बेसनगर का लेख:
यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है तथा गरुड़-स्तम्भ के ऊपर खुदा हुआ है । इससे मध्य भारत के भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है ।
3. भरहुत का लेख:
यह भरहुत स्तूप की एक वेष्टिनी पर खुदा हुआ मिलता है । इससे पता चलता है कि यह स्तूप शुंगकालीन रचना है ।
उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि के प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की उत्कृष्टता का ज्ञान कराते हैं । शुंगकाल की कुछ मुद्रायें कौशाम्बी, अयोध्या, अहिच्छत्र तथा मथुरा से प्राप्त होती हैं । इनसे भी तत्कालीन इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है ।
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